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उ॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशे॑न्द्रवा॒यू ह॑वामहे। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ubhā devā divispṛśendravāyū havāmahe | asya somasya pītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒ऽस्पृशा॑। इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। ह॒वा॒म॒हे॒। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में परस्पर संयोग करनेवाले पदार्थों का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (सोमस्य) उत्पन्न करनेवाले संसार के सुख के (पीतये) भोगने के लिये (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और (देवा) दिव्यगुणवाले (उभा) दोनों (इन्द्रवायू) अग्नि और पवन हैं, उनको (हवामहे) साधने की इच्छा करते हैं॥२॥
भावार्थभाषाः - जो अग्नि पवन और जो वायु अग्नि से प्रकाशित होता है, जो ये दोनों परस्पर आकाङ्क्षायुक्त अर्थात् सहायकारी हैं, जिनसे सूर्य्य प्रकाशित होता है, मनुष्य लोग जिनको साध और युक्ति के साथ नित्य क्रियाकुशलता में सम्प्रयोग करते हैं, जिनके सिद्ध करने से मनुष्य बहुत से सुखों को प्राप्त होते हैं, उनके जानने की इच्छा क्यों न करनी चाहिये॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ परस्परानुषङ्गिणावुपदिश्येते।

अन्वय:

वयमस्य सोमस्य पीतये दिविस्पृशा देवोभेन्द्रवायू हवामहे॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उभा) द्वौ। अत्र त्रिषु प्रयोगेषु सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (देवा) दिव्यगुणै (दिविस्पृशा) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (इन्द्रवायू) अग्निपवनौ (हवामहे) स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य (सोमस्य) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य (पीतये) भोगाय॥२॥
भावार्थभाषाः - योऽग्निर्वायुना प्रदीप्यते वायुरग्निना चेति परस्परमाकाङ्क्षितौ सहायकारिणौ स्तो मनुष्या युक्त्या सदैव सम्प्रयोज्य साधयित्वा पुष्कलानि सुखानि प्राप्नुवन्ति, तौ कुतो न जिज्ञासितव्यौ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अग्नी व पवन आणि जो वायू व अग्नीने प्रकाशित होतो. हे दोन्ही परस्पर आकांक्षायुक्त साह्यकारी आहेत. ज्यांच्यामुळे सूर्य प्रकाशित होतो, माणसे ज्यांना युक्तीने नित्य क्रियाकौशल्याद्वारे संप्रयोगात आणतात, ज्यांना सिद्ध करण्याने माणसे सुख प्राप्त करतात, त्यांना जाणण्याची इच्छा का करू नये? ॥ २ ॥